पुस्तक समीक्षा || "सिर्फ तुम ही" by पीयूष उमराव || kavi sandeep dwivedi
"सिर्फ़ तुम ही" written by पियूष उमराव
पियूष उमराव जी से हमारा परिचय
फेसबुक के माध्यम से पियूष जी मुझसे और मैं उनसे किसी साहित्य प्रेमी के तरीके से परिचित हुए..
तब पियूष जी किसी पुस्तक पर तब शायद काम कर रहे थे या शायद उसी समय उनकी एक पुस्तक का विमोचन हुआ था ये तो अभी टाइपिंग के दौरान याद नही आ रहा..फेसबुक ही देखना पड़ेगा..ह ह ह..
इनकी किताब का नाम है "बस तुम ही" पियूष जी ने बताया यह उनका एक कविता संग्रह है ..उनके ह्रदय में अब तक जो भावों के ज्वार उमड़े थे वो सब कविता के रूप में इस पुस्तक में उड़ेले गये हैं..बुक्सक्लिनिक पब्लिकेशन ने इसे प्रकाशित किया है ..
प्रकाशन के बाद पियूष जी ने पुस्तक हमें corier की..एक बार आकर लौट भी गयी ह ह ह ..फिर दोबारा भेजी गयी..धन्यवाद पियूष जी..और हाँ लिखना चाहूँगा पुस्तक के साथ जो आपका पत्र था..आह..मेरे लिए बड़ी उपलब्धि थी उस पर शब्दों से समेटा गया मेेरे लिए आपका आदर प्रेम..धन्यवाद
आइये,पुस्तक की तरफ़ चलते हैं ..
इस पुस्तक के विषय में मैं कुछ बोलू इससे पहले बता दूँ मैं कोई साहित्य का विशेषज्ञ नही हूँ...हाँ एक पाठक के तौर पर अपने विचार जरुर रखना चाहूंगा..जो रख रहा हूँ...
रचनाकार और प्रकाशक की विशेषता
'सिर्फ़ तुम ही " पियूष उमराव जी की लिखी हुई चालीस कविताओं का संग्रह है..प्रकाशन ने इसे 82 -84 पेज में संकलित किया है ..
प्रिंट अच्छा है किताब का..टाइपिंग में शब्दों की शुद्धता का भी अच्छा ध्यान रखा गया है...
............कुछ कवितायेँ मेरे ह्रदय को छू गयी..तभी मैंने इसकी समीक्षा करने का निर्णय लिया...
पियूष जी के लेखन की खास बात ये लगी मुझे कि इनकी रचनाओं में आप स्वयं की कल्पना को भी ढूढ़ सकते हैं..हलाकि कविता में ऐसा ही होता है लेकिन कई बार आप रचनाकार के हिसाब से ही आपको रचनायें पढनी होती हैं..आप कहीं कुछ और नही madh सकते ..
यह पुस्तक कई तरह की रचनाओं से सजी है प्रेरक कवितायेँ भी हैं..कुछ आपको यादों में भी ले जाती हैं..फिर कुछ बाहर निकालती हैं..ह ह ह
जैसे एक वक्त था , मां का लाल ,लक्ष्य ,कुछ बातें तुम्हारी आदि..
यह भी कहना चाहूँगा कि इतना सीधा भी नही है कहने का तरीका पर इतना कठिन भी नही कि आप समझें न..कविताओं में एक साधारण पाठक के साहित्य बोध जितनी गहराई है ...
जैसे पुस्तक की एक रचना है :
'मैं कलाकर हूँ"
भावनाओं से घिरा हुआ
अपनी प्रकृति से बंधा हुआ
तुम्हें ख़ुद में उतरने की चाह लिए हुए
ख़ुद में किरदार को गढ़े हुए
दुःख को व्यंग्य में समाये
करुणा को युद्ध में पिरोये हुए
आश्चर्य का फैलाव है
घृणा का कहीं न बहाव है ,
भाग्य का न भाव है
कर्म का जमाव है..
मैंने कविता की शैली के विषय में जो बाते ऊपर कहीं हैं इन पंक्तियों में लगभग सभी देखने को मिल जाएँगी..
नई कविता का गुण पहनी हुयी कवितायेँ... पढ़ने में आनंद आता है... बोल बोल के पढियेगा..मैंने किया तब बता रहा हूँ...
कुछ कमियां जो मुझे लगी ..
कई कविताओं के शीर्षक कविताओं का ठीक से नेतृत्व नही करते..तात्पर्य यह कि कविता पढने के बाद कविता को जो भाव है जो गहरापन है वो शीर्षक प्रदर्शित करने कहीं असक्षम प्रतीत होता है लगता है कुछ और शीर्षक होना चाहिए था..ये सभी कविताओं में नही है पर कुछ कविताओं में ऐसा मुझे लगा हो सकता है आपके हिसाब से मैं गलत होऊं...
बाकी किताब पढने के बाद आप किताब से स्वयं को संतुष्ट पाते हैं और एक अच्छी किताब का दर्जा देते हुए आप कहीं ठीक से जगह पर इसे सहेजते हैं..
पियूष उमराव जी से ,
उमराव जी, बहुत अच्छा प्रयास आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं..
मुझे पूरा विश्वास है इसकी सफलता ही आपकी यात्रा का अंत नही है बल्कि यह सतत चलती रहेगी ..
प्रकाशक को भी बहुत बधाई...
धन्यवाद्
Kavi Sandeep Dwivedi
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