जो रोते बैठे हैं.. बैठें 

खुद को नहीं भिगोना रोके 

नहीं भटकना कहीं और अब 

नहीं बिताना समय को ऐसे 

जीवन ये जो पाया है 

है शीर्ष नया गढ़ने को 

रंगने को होते नहीं पंख 

होते हैं ये.. उड़ने को । 


उम्मीदों ने छेड़े हैं

तार मेरे संघर्षों के 

कैसे फलित नहीं होंगे 

है तपे हुए हम वर्षों के 

धूप है कोई आग नहीं 

कब तक ठहरें चलने को 

रंगने को होते नहीं पंख 

होते हैं ये.. उड़ने को । 


कोई कैसे कह देता है 

पर्वत टूट नहीं सकता 

या तो नदियां नहीं दिखी 

या उसको घाट नहीं दिखता 

होने को सब हो जाता है 

तैयार रहो जो.. बहने को 

रंगने को होते नहीं पंख 

होते हैं ये.. उड़ने को । 


वहीं जमाओ डेरा अपना 

जहाँ न संभव जा पाना 

सीमाएं तो पग पग हैं 

यदि नहीं स्वयं को पहचाना 

तोड़ी जाती हैं सीमाएं 

इतिहास नया रचने को 

रंगने को होते नहीं पंख 

होते हैं ये उड़ने को । 

Sandeep Dwivedi 

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